मंगलवार, 10 जनवरी 2012

मांगी सूचना मिली मौत, मुश्किल में आरटीआइ कार्यकर्ता

सच को सामने लाना आसान काम नहीं है. यह आग का दरिया है, जिसमें डूब कर जाना होता है. ऐसा ही सूचना का अधिकार (आरटीआइ) कानून के तहत सच को सामने लाने वालों के बारे में भी है. इन दिनों बिहार में सूचना मांगना काफी महंगा पड़ रहा है. आरटीआइ कार्यकर्ताओं को उनकी कोशिशों के एवज में झूठे मामलों का सामना या फिर अपनी जान से ही हाथ धोना पड़ रहा है.
लखीसराय के रामविलास सिंह की 8 दिसंबर को हुई हत्या, इसी तरह के माहौल की ओर इशारा करती है. वे सच को सामने लाना चाहते थे. उन्होंने आरटीआइ को हथियार बनाया. कुछ लोगों को यह पसंद नहीं था. वे राकेश सिंह उर्फ बमबम सिंह को हत्या के मामलों में गिरफ्तार न किए जाने की सूचना पुलिस अधिकारियों से चाहते थे. उन्होंने पुलिस अधिकारी की संपति का ब्यौरा भी मांगा था.
रामविलास ने पंचायत चुनाव में मिल रही धमकियों से जान को खतरा होने की आशंका जताई थी और राज्‍य मानवाधिकार आयोग समेत दर्जनों इकाइयों से शिकायत भी की थी. लेकिन उनकी पूरी कवायद बेनतीजा रही. रामविलास के बेटे अभिषेक कुमार बताते हैं, ''पुलिस महकमा चाहता तो पिताजी की जान बच सकती थी. पुलिस ने न तो आरटीआइ आवेदनों पर अपराधी को गिरफ्तार किया और न ही सुरक्षा दिलवाई.'' अभिषेक की शिकायत पर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने लखीसराय के एसपी चौरसिया चंद्रशेखर आजाद से जवाब तलब किया है.
ऐसा ही कुछ बेगूसराय के बरौनी के शशिधर पांडे उर्फ खबरीलाल के साथ भी हुआ था. वे स्क्रैप माफिया और पुलिस के गठजोड़ को सबके सामने लाना चाहते थे. लेकिन 14 फरवरी, 2010 को उनकी हत्या कर दी गई थी. राजगीर के रामविलास कुछ खुशकिस्मत रहे. उनकी मुश्किलें उस समय शुरू 'ईं जब उन्होंने एसडीओ से नरेगा की जानकारी मांगी. उनके घर के दरवाजे में बिजली का करंट छोड़ दिया गया. बात नहीं बनी तो दो बार कुएं में जहरीली दवाइयां डालकर जान से मारने की कोशिश की गई. रामविलास बताते हैं, ''तत्कालीन एसडीओ के खिलाफ शिकायत करने पर राहत मिली.'' तत्कालीन राज्‍य सूचना आयुक्त शशांक कुमार सिंह ने एसडीओ कुलदीप नारायण को गैर-जिम्मेदार करार देते हुए जुर्माना और विभागीय कार्रवाई का आदेश दिया था.
आरटीआइ के जरिए सचाई सामने लाने वाले की सुरक्षा के बारे में पूछे जाने पर बिहार के पुलिस महानिदेशक अभयानंद कहते हैं, ''आरटीआइ कार्यकर्ताओं को सुरक्षा प्रदान करने के लिए संवैधानिक रूप से अलग से प्रावधान नहीं है. सुरक्षा की मांग करने वालों की अर्जियां जिला सुरक्षा समिति को सौंप दी जाती हैं, जहां से आवेदकों को खतरे की प्रकृति की गंभीरता के हिसाब से सुरक्षा मुहैया कराई जाती है.''
ऐसे मामलों की कोई कमी नहीं है, जहां आरटीआइ का सहारा लेने वालों को बेवजह ही परेशान किया गया है. खरीदीविगहा की मनोरमा देवी जब आंगनबाड़ी सेविका के पद पर नहीं चुनी गईं तो उन्होंने आरटीआइ को हथियार बनाया. करीब ढाई साल बाद ग्राम सभा आयोजित कर उन्हें सेविका के रूप में चुन लिया गया. इसकी कीमत मनोरमा और उनके पति को नवादा जेल में 14 दिन तक सजा काटकर चुकानी पड़ी. आरटीआइ के जरिए आई सचाई से जिस सुष्मिता नाम की महिला को सेविका पद छोड़ना पड़ा था, उसने मनोरमा और उसके पति गणेश चौहान के खिलाफ नगर थाने में मारपीट का आरोप लगाकर एफआइआर दर्ज करा दी.
मजेदार यह कि मनोरमा इस नाम से किसी महिला के अस्तित्व से ही इनकार करती हैं. वे कहती हैं, ''असल में गांव की नीलम के पास मैट्रिक के दो सर्टिफिकेट हैं. एक सर्टिफिकेट के आधार पर नीलम खुद राशन की दुकान चला रही है जबकि सुष्मिता नाम के दूसरे सर्टिफिकेट से अपनी देवरानी कांति को सेविका का पद दिला रखा था.'' उन्होंने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग से सुष्मिता नाम की महिला का पता लगाने के लिए आवेदन किया है.
अब सारण के मकव्र पंचायत के वीरेंद्र कुमार साह को ही लें. उन्होंने मुखिया से शिक्षक नियोजन से जुड़ी जानकारी मांगी थी. दोनों पैर से विकलांग वीरेंद्र को सूचनाएं तो नहीं मिलीं, उल्टा इसी दौरान चुनावी रंजिश में हुई मुखिया की हत्या का उसे अभियुक्त बना दिया गया. संयोग अच्छा था कि वीरेंद्र के साथ न्याय हुआ, वह आरोप मुक्त हुआ. सूचना न देने के और भी कई तरीके सामने आ रहे हैं.
भोजपुर के कवि तिवारी ने पंचायत समिति से योजनाओं की जानकारी मांगी तो उन्हें उसी कागजात को छीनने का आरोपी बना दिया गया, जिसकी सूचना मांगी गई थी. नागरिक अधिकार मंच के अध्यक्ष शिवप्रकाश राय बताते हैं, ''आरटीआइ देश के करोड़ों लोगों का सशक्त हथियार है, जो भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने में अहम भूमिका निभा रहा है. लेकिन आवेदकों पर चौतरफा हमले से स्थिति नाजुक हो गई है.''
बिहार राज्‍य सूचना आयोग के मुख्य सूचना आयुक्त अशोक कुमार चौधरी कहते हैं, ''सूचना उपलब्ध कराने में बिहार देश में अव्वल है. हर माह करीब 1,500 आवेदन आते हैं. करीब 60,000 से अधिक आवेदनों में से मुश्किल से 4,000 लंबित हैं.'' वे बताते हैं कि ज्‍यादातर सचिवालय स्तर से सूचनाएं उपलब्ध करा दी जाती हैं. चाहे जो हो आरटीआइ को कुंद करने वालों का दबदबा कायम है. इस माहौल में आवेदकों का साजिशों से बचना चुनौती बनता जा रहा है.

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