नागरिक अधिकार मंच, बिहार
सूचना के अधिकार पर काम करने के उपरांत प्राप्त अनुभवों से इसका दायरा बढाते हुए व्यापक नागरिक हितों की पूर्ति के लिए अपने सक्रिय साथियों से विचार विमर्श के उपरांत नागरिक अधिकार मंच के गठन की योजना बनी. इस मंच के माध्यम से विधिक तरीके से व्यापक नागरिक हितों की पूर्ति हेतु संघर्ष किया जाएगा.
गुरुवार, 9 मई 2013
गुरुवार, 27 दिसंबर 2012
गुरुवार, 20 दिसंबर 2012
सोमवार, 17 दिसंबर 2012
सूचना आवेदकों पर दर्ज हो रहे फर्जी मुकदमे
बिहार में सूचना आवेदकों को फर्जी मुकदमे में फँसा कर जेल भेजने की प्रथा सूचना का अधिकार क़ानून लागू होने के साथ ही शुरू हो गयी थी. नागरिक अधिकार मंच द्वारा लगातार बार-बार ऐसे मुद्दे पर सरकार का ध्यान आकर्षित किया जाता रहा है. कहने को माननीय मुख्यमंत्री महोदय ने ऐसे पीड़ितों के लिए टोलफ्री नंबर की व्यवस्था की, पर लोक सूचना पदाधिकारियों के मन में क़ानून का भय नहीं है और वे अपने कानूनी अधिकार के प्रति सजग नागरिकों को प्रताड़ित करने का कोई मौक़ा नहीं चूकते. हाल में ऐसे तीन उदाहरण हमारे संज्ञान में हैं, जिनमें फर्जी मुकदमे दर्ज कर सूचना आवेदकों को सलाखों के पीछे कर दिया गया है और उनके परिजन न्याय के लिए भटक रहे हैं.
१. बक्सर के "अनिल कुमार दूबे" जो विधि के छात्र रहे हैं और हाल ही में न्यायिक सेवा हेतु उनका चयन हुआ है, ने राजपुर प्रखंड के अंचलाधिकारी से सूचना के अधिकार के तहत कुछ जानकारी माँगी. अंचलाधिकारी द्वारा सूचना नहीं दिए जाने पर उन्होंने प्रथम अपीलीय पदाधिकारी तथा तदोपरांत राज्य सूचना आयोग में अपील की. अंचलाधिकारी महोदय अनुसूचित जाति के हैं, सो उन्होंने इसका फायदा उठाते हुए सूचना आवेदक पर राजपुर थाने में अनुसूचित जाति-जनजाति अत्याचार अधिनियम के अंतर्गत मुकदमा दर्ज कर दिया (राजपुर थाना काण्ड संख्या 128/2012/ dated 16.06.2012), जिससे ये छः माह तक अनभिज्ञ रहे. पुलिस पदाधिकारियों ने बिना इनका पक्ष जाने अनुसंधान एवं पर्यवेक्षण का कार्य भी संपन्न कर दिया. मुकदमा के बारे में ये अपनी गिरफ्तारी होने के बाद ही जान पाए.
२. मोतिहारी जिलान्तर्गत संग्रामपुर थाना में राजेन्द्र सिंह पर आर्म्स एक्ट का झूठा मुकदमा (संग्रामपुर थाना काण्ड संख्या 158/2012) दर्ज किया गया. उन्होंने पुलिस पदाधिकारियों से ही सूचना के अधिकार के अंतर्गत विभिन्न सूचनाएं माँगी थी. फर्जी मुकदमे दर्ज हो जाने पर इन्होने राज्य मानवाधिकार आयोग के समक्ष भी गुहार लगाई थी. पर दर्ज फर्जी मुकदमे में इन्हें जेल भेज दिया गया.
३. लखीसराय जिलान्तर्गत सूर्यगढ़ा थाना में अवकाश प्राप्त सैनिक और सूचना अधिकार कार्यकर्ता कमलेश्वरी मेहता पर सूचना मांगने के कारण फर्जी मुकदमा दर्ज कर गिरफ्तार कर लिया गया. अभी लगभग एक हफ्ते पहले ही इन्होने राज्य मानवाधिकार आयोग के समक्ष अपने ऊपर दर्ज फर्जी मुकदमे के बारे में गुहार लगाई थी.
एक तरफ राज्य सरकार पारदर्शिता और न्याय के साथ विकास की बात कह रही है और दूसरी तरफ सूचना आवेदकों पर फर्जी मुकदमे दर्ज किए जा रहे हैं. क्या ऐसे ही होगा न्याय के साथ विकास ?
रविवार, 9 दिसंबर 2012
सोमवार, 10 सितंबर 2012
आरटीआइ में मांगी सूचना, तो मिली प्रताड़ना
।। दीपक दक्ष ।।
पटना : डीएम ऑफिस से बुलावा आया. वह भागते हुए पहुंचा. सामने डीएम साहब थे. बोले, खड़े रहो. वह चुपचाप खड़ा रहा. फिर बोले, ज्यादा होशियार बनते हो? एक्टिविस्ट बनने का भूत सवार है? सब भूत एक दिन में भाग जायेगा.
तुम्हारे कारण मुझे आयोग से फटकार मिली. आखिर खुद को समझते क्या हो? फिर डीएम साहब घंटी बजाते हैं. कर्मचारी आता है. थोड़ी देर बाद पुलिस आती है. उसे पकड़ कर ले जाती है. पुलिस कहती है, पगला गये हो क्या, कल्कटरे साहब से रंगदारी मांग रहे हो. फिर 29 दिनों तक वह शख्स जेल में रहा. उसका अपराध था सूचना के अधिकार के तहत सूचना मांगना.
बाद में एसपी की जांच रिपोर्ट से भी साबित हुआ कि रंगदारी का कोई साक्ष्य नहीं मिला, गवाहों ने इसे नहीं स्वीकारा. खैर, यह तो महज एक की कहानी है. लगभग इसी तरह के कुल 101 लोगों के मामले सामने आये हैं, जिन्हें सूचना मांगने पर उत्पीड़न का शिकार होना पड़ा है. ये आंकड़े महज पांच महीने के ही हैं और यह सब कुछ खुलासा हुआ है आरटीआइ के तहत मांगी गयी सूचना से.
* मानवाधिकार आयोग की पहल
2009 में राज्य मानवाधिकार आयोग में एक मामला आया. मामला था सूचना मांगने पर उत्पीड़न का. आयोग ने सरकार से कहा कि 54 मामले आये हैं, जिनमें वैसे लोगों को फंसाया गया है, जो सूचना मांग रहे थे.
आयोग ने मुख्य सचिव को पत्र लिखा कि झूठे मुकदमे करनेवाले अधिकारियों को दंडित किया जाये. ऐसे अधिकारियों में एसपी से लेकर डीएम तक हैं. यह बात जान कर सरकार के कान खड़े हो गये. आनन-फानन में एक हेल्पलाइन ( 0612-2219435) जारी की गयी. कहा गया कि इससे गृह सचिव और डीजीपी सीधे जुड़े रहेंगे.
* आरटीआइ एक्टिविस्ट ने मांगी सूचना
अब सूबे के जाने-माने आरटीआइ एक्टिविस्ट और नागरिक अधिकार मंच के प्रदेश अध्यक्ष शिव प्रकाश राय ने आठ मई, 2012 को सामान्य प्रशासन विभाग से सूचना मांगी कि इस हेल्पलाइन के जरिये अब तक कितने मामले सामने आये हैं? इनमें क्या कार्रवाई हुई है? सामान्य प्रशासन विभाग ने गृह विभाग और बेलट्रॉन( हेल्पलाइन संचालक) को पत्र लिखा.
उन्होंने बारी-बारी से सूचना उपलब्ध करायी. गृह विभाग के अवर सचिव रवि शंकर कुमार सिन्हा ने 11 जून, 2012 को सूचना दी कि 2011 में 26 और 2012 में अब तक 11 मामले सामने आये हैं यानी कुल 37 मामले सूचना मांगने पर उत्पीड़न से संबंधित हैं. बेलट्रॉन के लोक सूचना पदाधिकारी विनोद कुमार ने 28 अगस्त को सूचना दी कि कुल 30 मामले सामने आये हैं. फिर राज्य सूचना आयोग ने सूचना दी कि 15 मार्च से 12 अगस्त, 2012 तक हमारे पास 101 लोगों ने सूचना मांगने पर उत्पीड़न की शिकायत शपथपत्र के साथ दर्ज करायी है.
* नाम के साथ शिकायत
2009 में ही मानवाधिकार आयोग ने 54 अधिकारियों को दंडित करने का आदेश दिया था. लेकिन, कितने लोगों को दंडित किया गया, आज तक इसका पता नहीं चला. अब एक बार फिर राज्य सूचना आयोग ने 101 मामले को सामने रखा है.
जैसे पश्चिमी चंपारण के शरद कुमार ने लोक सूचना पदाधिकारी सह कृषि पदाधिकारी पर, विक्रम के रामविलास प्रसाद ने चिकित्सा पदाधिकारी पर, वैशाली के अजीत कुमार ने जिला शिक्षा पदाधिकारी पर और धनरूआ, पटना के नागेश्वर साह ने सीडीपीओ पर उत्पीड़न का मामला राज्य सूचना आयोग में दर्ज कराया है.
* सूचना मांगने पर मिली मौत
* रामविलास की मौत
लखीसराय के बभन गांवा के रामविलास सिंह ने पुलिस विभाग, कृषि विभाग व प्रखंड के कथित भ्रष्टाचार को सामने लाने के लिए आरटीआइ के तहत आवेदन दिया. उन्हें धमकी मिलने लगी. उन्होंने गृह सचिव, डीजीपी, एसपी सहित 19 जगह पत्र लिखे. इनमें साफ -साफ लिखा था कि अमूक-अमूक अधिकारी मेरी हत्या करवा सकते हैं. लेकिन, किसी ने इस पर ध्यान नहीं दिया और आखिर में 11 दिसंबर, 2011 को उनकी हत्या हो गयी.
* 72 वर्षीय वृद्ध को मारा
मुंगेर के हवेली खड़गपुर के 72 वर्षीय डॉ मुरली मनोहर जायसवाल आरटीआइ के जरिये ब्लॉक में चल रहे भ्रष्टाचार को सामने लाना चाह रहे थे. उन्हें बार -बार धमकी मिल रही थी, लेकिन वह नहीं माने और चार मार्च, 2012 को उनकी भी हत्या हो गयी.
* खबरची लाल की मौत
बेगूसराय के फुलवरिया के शशिधर मिश्र को लोग खबरची लाल कहते थे. उनके पास हर किसी कि खबर रहती थी. वह लगातार आरटीआइ का प्रयोग कर रहे थे. 2009 में वह स्क्रैप माफिया और पुलिस की गंठजोड़ को उजागर करने में लगे थे. सूचना के लिए आवेदन दिया था, तभी उनकी भी हत्या हो गयी.
* 101 लोगों ने सूचना मांगने पर उत्पीड़न करने का आरोप लगाया
* आरटीआइ के तहत मामले का खुलासा
- सीएम के आदेश के बाद आयोग लगातार ऐसे मामलों की मॉनीटरिंग कर रहा है. शिकायत आने पर आयोग प्रधान सचिव, गृह सचिव व डीजीपी को पत्र लिख कर इस पर नियंत्रण के लिए कहता है. हम चाहते हैं कि सूचना मिले, उत्पीड़न न हो.
फरजंद अहमद, राज्य सूचना आयुक्त
- राज्य सूचना आयोग उदासीन है. अगर आयोग अधिकारियों को दंडित करता, तो इस पर लगाम लगती. सिर्फ पत्र लिखने से कुछ नहीं होगा.
शिव प्रकाश राय, आरटीआइ एक्टिविस्ट
पटना : डीएम ऑफिस से बुलावा आया. वह भागते हुए पहुंचा. सामने डीएम साहब थे. बोले, खड़े रहो. वह चुपचाप खड़ा रहा. फिर बोले, ज्यादा होशियार बनते हो? एक्टिविस्ट बनने का भूत सवार है? सब भूत एक दिन में भाग जायेगा.
तुम्हारे कारण मुझे आयोग से फटकार मिली. आखिर खुद को समझते क्या हो? फिर डीएम साहब घंटी बजाते हैं. कर्मचारी आता है. थोड़ी देर बाद पुलिस आती है. उसे पकड़ कर ले जाती है. पुलिस कहती है, पगला गये हो क्या, कल्कटरे साहब से रंगदारी मांग रहे हो. फिर 29 दिनों तक वह शख्स जेल में रहा. उसका अपराध था सूचना के अधिकार के तहत सूचना मांगना.
बाद में एसपी की जांच रिपोर्ट से भी साबित हुआ कि रंगदारी का कोई साक्ष्य नहीं मिला, गवाहों ने इसे नहीं स्वीकारा. खैर, यह तो महज एक की कहानी है. लगभग इसी तरह के कुल 101 लोगों के मामले सामने आये हैं, जिन्हें सूचना मांगने पर उत्पीड़न का शिकार होना पड़ा है. ये आंकड़े महज पांच महीने के ही हैं और यह सब कुछ खुलासा हुआ है आरटीआइ के तहत मांगी गयी सूचना से.
* मानवाधिकार आयोग की पहल
2009 में राज्य मानवाधिकार आयोग में एक मामला आया. मामला था सूचना मांगने पर उत्पीड़न का. आयोग ने सरकार से कहा कि 54 मामले आये हैं, जिनमें वैसे लोगों को फंसाया गया है, जो सूचना मांग रहे थे.
आयोग ने मुख्य सचिव को पत्र लिखा कि झूठे मुकदमे करनेवाले अधिकारियों को दंडित किया जाये. ऐसे अधिकारियों में एसपी से लेकर डीएम तक हैं. यह बात जान कर सरकार के कान खड़े हो गये. आनन-फानन में एक हेल्पलाइन ( 0612-2219435) जारी की गयी. कहा गया कि इससे गृह सचिव और डीजीपी सीधे जुड़े रहेंगे.
* आरटीआइ एक्टिविस्ट ने मांगी सूचना
अब सूबे के जाने-माने आरटीआइ एक्टिविस्ट और नागरिक अधिकार मंच के प्रदेश अध्यक्ष शिव प्रकाश राय ने आठ मई, 2012 को सामान्य प्रशासन विभाग से सूचना मांगी कि इस हेल्पलाइन के जरिये अब तक कितने मामले सामने आये हैं? इनमें क्या कार्रवाई हुई है? सामान्य प्रशासन विभाग ने गृह विभाग और बेलट्रॉन( हेल्पलाइन संचालक) को पत्र लिखा.
उन्होंने बारी-बारी से सूचना उपलब्ध करायी. गृह विभाग के अवर सचिव रवि शंकर कुमार सिन्हा ने 11 जून, 2012 को सूचना दी कि 2011 में 26 और 2012 में अब तक 11 मामले सामने आये हैं यानी कुल 37 मामले सूचना मांगने पर उत्पीड़न से संबंधित हैं. बेलट्रॉन के लोक सूचना पदाधिकारी विनोद कुमार ने 28 अगस्त को सूचना दी कि कुल 30 मामले सामने आये हैं. फिर राज्य सूचना आयोग ने सूचना दी कि 15 मार्च से 12 अगस्त, 2012 तक हमारे पास 101 लोगों ने सूचना मांगने पर उत्पीड़न की शिकायत शपथपत्र के साथ दर्ज करायी है.
* नाम के साथ शिकायत
2009 में ही मानवाधिकार आयोग ने 54 अधिकारियों को दंडित करने का आदेश दिया था. लेकिन, कितने लोगों को दंडित किया गया, आज तक इसका पता नहीं चला. अब एक बार फिर राज्य सूचना आयोग ने 101 मामले को सामने रखा है.
जैसे पश्चिमी चंपारण के शरद कुमार ने लोक सूचना पदाधिकारी सह कृषि पदाधिकारी पर, विक्रम के रामविलास प्रसाद ने चिकित्सा पदाधिकारी पर, वैशाली के अजीत कुमार ने जिला शिक्षा पदाधिकारी पर और धनरूआ, पटना के नागेश्वर साह ने सीडीपीओ पर उत्पीड़न का मामला राज्य सूचना आयोग में दर्ज कराया है.
* सूचना मांगने पर मिली मौत
* रामविलास की मौत
लखीसराय के बभन गांवा के रामविलास सिंह ने पुलिस विभाग, कृषि विभाग व प्रखंड के कथित भ्रष्टाचार को सामने लाने के लिए आरटीआइ के तहत आवेदन दिया. उन्हें धमकी मिलने लगी. उन्होंने गृह सचिव, डीजीपी, एसपी सहित 19 जगह पत्र लिखे. इनमें साफ -साफ लिखा था कि अमूक-अमूक अधिकारी मेरी हत्या करवा सकते हैं. लेकिन, किसी ने इस पर ध्यान नहीं दिया और आखिर में 11 दिसंबर, 2011 को उनकी हत्या हो गयी.
* 72 वर्षीय वृद्ध को मारा
मुंगेर के हवेली खड़गपुर के 72 वर्षीय डॉ मुरली मनोहर जायसवाल आरटीआइ के जरिये ब्लॉक में चल रहे भ्रष्टाचार को सामने लाना चाह रहे थे. उन्हें बार -बार धमकी मिल रही थी, लेकिन वह नहीं माने और चार मार्च, 2012 को उनकी भी हत्या हो गयी.
* खबरची लाल की मौत
बेगूसराय के फुलवरिया के शशिधर मिश्र को लोग खबरची लाल कहते थे. उनके पास हर किसी कि खबर रहती थी. वह लगातार आरटीआइ का प्रयोग कर रहे थे. 2009 में वह स्क्रैप माफिया और पुलिस की गंठजोड़ को उजागर करने में लगे थे. सूचना के लिए आवेदन दिया था, तभी उनकी भी हत्या हो गयी.
* 101 लोगों ने सूचना मांगने पर उत्पीड़न करने का आरोप लगाया
* आरटीआइ के तहत मामले का खुलासा
- सीएम के आदेश के बाद आयोग लगातार ऐसे मामलों की मॉनीटरिंग कर रहा है. शिकायत आने पर आयोग प्रधान सचिव, गृह सचिव व डीजीपी को पत्र लिख कर इस पर नियंत्रण के लिए कहता है. हम चाहते हैं कि सूचना मिले, उत्पीड़न न हो.
फरजंद अहमद, राज्य सूचना आयुक्त
- राज्य सूचना आयोग उदासीन है. अगर आयोग अधिकारियों को दंडित करता, तो इस पर लगाम लगती. सिर्फ पत्र लिखने से कुछ नहीं होगा.
शिव प्रकाश राय, आरटीआइ एक्टिविस्ट
सोमवार, 2 अप्रैल 2012
बिहार में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के हनन से संबंधित खबरों से संबंधित शिकायत.
सेवा में,
सचिव,
भारतीय प्रेस परिषद, ८, सूचना भवन,
सी.जी.ओ.कम्प्लेक्स, लोधी रोड, नई दिल्ली-११०००३
विषय- बिहार में पत्रकारों पर दबाव की जाँच के सम्बन्ध में.
आदरणीय महोदय,
बिहार में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के हनन से संबंधित खबरों से संबंधित शिकायत दर्ज कराने हेतु उत्सुक हूँ और इसकी पुष्टी हेतु विन्दुवार कुछ तथ्यों को आपकी जानकारी में देना चाहता हूँ, जो निम्नलिखित हैं-
१. जुलाई २०११ में जनता के दरबार में मुख्यमंत्री में प्राप्त शिकायतों का ब्योरा नागरिक अधिकार मंच के बैनर तले मैंने सूचना के अधिकार के तहत प्राप्त किया था जिसके आधार पर पूरे प्रकरण को महुआ न्यूज चैनल पर दिखाया गया था. पुनः संशोधित सूचना प्राप्त होने पर इसे अक्टूबर में प्रसारित किया गया था. स्वाभाविक रूप से इस प्रसारण में मुख्यमंत्री जन शिकायत कोषांग द्वारा प्राप्त शिकायतों पर कोई संज्ञान नहीं लिए जाने की खबर थी, जो वास्तविकता को बयान कर रही थी. इस खबर से बौखलाए माननीय मुख्यमंत्री के दबाव में चैनल हेड ने ब्यूरो चीफ प्रवीण बागी, रिपोर्टर कुलभूषण जी सहित इस खबर को प्रसारित करने के लिए जिम्मेवार पूरी टीम को महुआ न्यूज से निकाल बाहर किया.
२. अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की स्थापना का प्रस्ताव कटिहार में था जिसे मुख्यमंत्री ने किशनगंज में प्रस्तावित किया था. उनके प्रस्ताव के विरोध में विपक्षी दलों ने जोरदार विरोध-प्रदर्शन किया था तथा इसमें विरोधी दल के एक सांसद तथा पाँच विधायकों पर प्राथमिकी दर्ज की गयी थी. पर, इस समाचार को किसी ने भी जगह नहीं दी.
३. बियाडा जमीन घोटाले तथा चारा घोटाला में माननीय मुख्यमंत्री की संलिप्तता के सम्बन्ध में बिहार विधान सभा में जोरदार हंगामा हुआ था, पर यह खबर मीडिया में जगह नहीं पा सकी.
४. जदयू नेता और वर्षों से पार्टी के कोषाध्यक्ष रहे विनय कुमार सिन्हा के निवास एवं व्यावसायिक प्रतिष्ठान पर आयकर दस्ते की छापेमारी में साढ़े चार करोड़ नकद बरामद किए गए. आयकर की छापेमारी में कई और चौंकानेवाले दस्तावेज मिले हैं. सिन्हा के पास राजधानी में पचास आवासीय फ्लैट है जिसके कागजात आयकर विभाग ने बरामद किए. विनय कुमार सिन्हा जदयू के कोषाध्यक्ष अब भी हैं. ये समता पार्टी के जमाने से पार्टी के कोषाध्यक्ष बने हुए हैं. मुख्यमंत्री बनने तक नीतीश कुमार बोरिंग रोड स्थित इन्हीं के आवास पर रहा करते थे. जदयू के विधान पार्षद रहे सिन्हा के पास कई कंपनियों के डिस्ट्रीब्यूटरशिप के कागजात भी बरामद हुए हैं. पर इतने बड़े न्यूज को प्रभात खबर को छोड़ दें तो किसी भी अखबार में पर्याप्त जगह नहीं मिली और ना ही न्यूज चैनलों ने इसे प्रसारित किया.
५. वर्ष २००५-०६ से मई २०११ तक प्रिंट तथा इलेक्ट्रोनिक मीडिया को भुगतान किए गए रुपयों का ब्योरा आप संलग्नक में देख सकते हैं, इससे मीडिया के सुशासन-गुणगान की वजह जानने में मदद मिल सकती है.
६.अखबारों में विज्ञापन घोटाले का खेल जारी है. आप १६ जुलाई २०११ के हिन्दुस्तान का अवलोकन करें राजस्व एवं भूमि सुधार विभाग (बिहार सरकार) द्वारा पृष्ठ ९ पर बड़ा सा रंगीन विज्ञापन निकाला गया था. फिर, उसी विज्ञापन को पृष्ठ संख्या १० पर Black & White में निकाला गया. यह सरकारी पैसे को सीधे तौर पर हिन्दुस्तान के मालिक के खाते में स्थानांतरित कर देना नहीं तो और क्या है ?
७. अंत में मैं श्री विनय शर्मा जी के आवेदन को भी संलग्न करना चाहूँगा. इन्होने मीडिया के दबाव में काम करने से संबंधित तथ्यों का सिलसिलेवार उल्लेख किया है. अनुलग्नक में आप इसे देख सकते हैं.
विश्वासी-
शिवप्रकाश राय
अध्यक्ष सह संस्थापक न्यासी
“नागरिक अधिकार मंच”,
गली न०- २, धोबी घाट,
चरित्रवन, बक्सर (बिहार)
शनिवार, 14 जनवरी 2012
बुधवार, 11 जनवरी 2012
फेसबुक पर बस शाईनिंग बिहार बोलना है, वरना मार पड़ेगी.
फेसबुक पर कुछ मित्र बिहार के बारे में केवल और केवल पोजिटिव ही सुनना चाहते हैं. मुझे भी बिहार में हो रहे सकारात्मक बदलाव महसूस हो रहे हैं पर इसका मतलब यह तो नहीं कि निगेटिव बातों को ढँक दिया जाए या पूरी शक्ति से उसे दबा दिया जाए. बिहार के कितने किसान, मजदूर, गाँवों में रहनेवाले अथवा शहर में ही रह रहे अपेक्षाकृत निम्न आय वर्ग के लोग फेसबुक अथवा सोशल मीडिया के संपर्क में हैं ? उनकी बातों को मेरे जैसे लोग ही तो सही तरीके से रख सकते हैं जो स्वयं उसी परिवेश में रहते हैं अथवा समान पेशे से जुड़े हैं. मैंने तो कभी अपनी जानकारी से बाहर की बातों पर चर्चा नहीं की फिर मैं अक्सर देखता हूँ कि चंद कमरों तक सीमित रहनेवाले लोग, जिनका समाज से जुड़ाव भी होता होगा तो संभवतः केवल इंटरनेट अथवा सोशल मीडिया के माध्यम से ही और वो भी समाज के उपरी तबकों तक ही, पूरे बिहार में चल रहे बदलाव की बयार का ऐसे बखान करते हैं जैसे उन्होंने इसका सर्वे किया है. नितीश जी से अथवा राजग सरकार से मुझे कोई एलर्जी नहीं है, पर मैं बातों को उसके वास्तविक परिप्रेक्ष्य में देखता हूँ.
आप प्रतिदिन राज्य में किसानों से न्यूनतम समर्थन मूल्य पर धान खरीद की बात सुन रहे हैं समाचारों में पढ़ रहे हैं, लग रहा होगा भाई सरकार तो बड़ा सजग है. और मैं जानता हूँ सारी बातें बेमतलब की हैं बस समाचारपत्रों की सुर्खियाँ हैं. राज्य सरकार की गलत खरीद नीति के कारण न तो किसानों से ही धान की खरीद हो पा रही है, राईस मिल (जो संभवतः वर्तमान बिहार में एकमात्र उद्योग है जिसे काफी आगे बढ़ाया जा सकता है) अत्यंत घाटे का उद्योग बनते जा रहा है और सहकारी समितियां/पैक्स भी नकारा साबित हो रहे हैं. कुल मिलाकर किसान का हाल बेहाल है.
आप प्रतिदिन पढ़ रहे हैं कि मुख्यमंत्री से लेकर प्रखंड स्तर तक जनता दरबार लगाए जा रहे हैं पर मैं आंकड़ों के आधार पर आपको बता रहा हूँ कि जन शिकायत निवारण की स्थिति अत्यंत खराब है, किसी को अंततः मुख्यमंत्री स्तर से आदेश जारी होने के बावजूद भी न्याय नहीं मिल रहा. लोग जनता-दरबार में जाते-जाते थक जा रहे हैं. नहीं विश्वास हो तो मुख्यमंत्री के यहाँ पड़े शिकायत और उसके निवारण की सूचना मंगाकर देख लें, आपको यही मालूम होगा कि आपकी शिकायत फलां पदाधिकारी को प्रेषित कर दी गयी है उसके निवारण की स्थिति को www.bpgrs.com पर अपलोड करना था पर, ऐसा नहीं किया जाता क्योंकि आवेदन जहाँ भेजा गया वहीँ धुल फाँकता है.
सूचना प्राप्त करने के लिए जानकारी कॉल सेंटर तथा इंटरनेट के माध्यम से व्यवस्था की गयी, पर आपका पैसा भी कटेगा और सूचना भी नहीं मिलेगी.
सभी जिलाधिकारी, आरक्षी अधीक्षक तथा अन्य सारे वरीय पदाधिकारियों का आधिकारिक इमेल आईडी प्रकाशित किया गया, पर संवेदनहीनता का आलम यह है कि आप मेल भेजते-भेजते थक जायेंगे, पर कोई रेस्पोंस नहीं लेगा.
मनरेगा में नब्बे प्रतिशत काम फर्जी मस्टर-रोल के आधार पर कागजों पर किए गए, शिकायतों पर भी कोई सुननेवाला नहीं. ऐसे शिकायतों की एक लंबी फेहरिस्त मैंने स्वयं माननीय मुख्यमंत्री को प्रेषित की है पर वह जाँच के लिए मुख्य-सचिव के यहाँ अगस्त 2011 से ही पड़ा हुआ है.
आप राज्य के सभी अस्पतालों में घूमकर देख लें, वहाँ दवा आपूर्ति करनेवाले कंपनी का आपने कभी नाम नहीं सूना होगा, सारे घटिया दवा राज्य सरकार के अस्पतालों में आपूर्ति किए जा रहे हैं. सब भयंकर कमीशनखोरी और घोटाले का चक्कर है.
पूरे बिहार में जाली प्रमाणपत्रों के आधार पर पारा-शिक्षकों की नियुक्ति हुई है, आज तक सभी नियुक्त शिक्षकों के प्रमाणपत्रों का सत्यापन नहीं कराया जा सका है.
बीएमपी में भर्ती घोटाले की रिपोर्ट स्वयं बीएमपी के पुलिस महानिरीक्षक द्वारा सरकार को दी जाती है, पर आरोपितों पर कोई कार्रवाई न कर उक्त रिपोर्ट करनेवाले पदाधिकारी का ही स्थानांतरण कर दिया जाता है.
करोड़ों रूपए बिजली बिल नहीं जमा करनेवाले धनपशुओं का सरकार द्वारा बिजली-बिल माफ किया जाता है और छः हजार रूपए बकाया रखनेवाले गरीब को जेल में डाल दिया जाता है, क्या यह भ्रष्टाचार का जीता-जागता प्रमाण नहीं है ?
लालू जी के शासन में छूटभैये से लेकर बड़े नेता उत्पात मचाते थे, कमोवेश वही काम आज नौकरशाही कर रही है थोड़े पोलिस्ड तरीके से. आज नेताओं की कोई औकात नहीं रह गयी है.
पर मेरे फेसबुक मित्रगण इन बातों को पसंद नहीं करते, उन्हें तो बस बिहार को चमकाना है तो इसके लिए शोर्ट-कर्ट है बस जहाँ भी रहो शेखी बघारो. चूंकि उन्हें तो किसानी, खेती, मजदूरी करनी नहीं है, वातानुकूलित कमरे में बैठकर कंप्यूटर पर शाइनिंग बिहार का मैसेज लिखते रहेंगे. आप लिखिए पर वास्तविकताओं को भी जानिए बंधु, नहीं तो कहीं ना कहीं आप भी दबे-कुचले, वंचित, पीछे छूट गए लोगों के साथ अन्याय कर रहे हैं. उनकी अपनी तो क्षमता नहीं आवाज बुलंद करने की क्योंकि आपके जैसे बुद्धिजीवी उन्हें निगेटिव अप्रोच वाला कहकर सोशल साईट्स से भी खदेड़ देंगे.
मैं भी सुशासन चाहता हूँ पर बहरा, अंधा और गूंगा होकर नहीं, जहाँ कमियां रहेंगी मैं उसे देखूंगा-सुनूंगा और बोलूंगा भी. मेरा उद्देश्य इन बातों की ओर संबंधित संवेदनशील लोगों का ध्यान आकृष्ट कराना मात्र रहता है, लगता है कोई तो होगा जिससे उम्मीद की जा सकती है. यही वजह है कि मैं अपनी बातों को फेसबुक पर विभिन्न ग्रुपों में लिखते रहता हूँ.
आप प्रतिदिन राज्य में किसानों से न्यूनतम समर्थन मूल्य पर धान खरीद की बात सुन रहे हैं समाचारों में पढ़ रहे हैं, लग रहा होगा भाई सरकार तो बड़ा सजग है. और मैं जानता हूँ सारी बातें बेमतलब की हैं बस समाचारपत्रों की सुर्खियाँ हैं. राज्य सरकार की गलत खरीद नीति के कारण न तो किसानों से ही धान की खरीद हो पा रही है, राईस मिल (जो संभवतः वर्तमान बिहार में एकमात्र उद्योग है जिसे काफी आगे बढ़ाया जा सकता है) अत्यंत घाटे का उद्योग बनते जा रहा है और सहकारी समितियां/पैक्स भी नकारा साबित हो रहे हैं. कुल मिलाकर किसान का हाल बेहाल है.
आप प्रतिदिन पढ़ रहे हैं कि मुख्यमंत्री से लेकर प्रखंड स्तर तक जनता दरबार लगाए जा रहे हैं पर मैं आंकड़ों के आधार पर आपको बता रहा हूँ कि जन शिकायत निवारण की स्थिति अत्यंत खराब है, किसी को अंततः मुख्यमंत्री स्तर से आदेश जारी होने के बावजूद भी न्याय नहीं मिल रहा. लोग जनता-दरबार में जाते-जाते थक जा रहे हैं. नहीं विश्वास हो तो मुख्यमंत्री के यहाँ पड़े शिकायत और उसके निवारण की सूचना मंगाकर देख लें, आपको यही मालूम होगा कि आपकी शिकायत फलां पदाधिकारी को प्रेषित कर दी गयी है उसके निवारण की स्थिति को www.bpgrs.com पर अपलोड करना था पर, ऐसा नहीं किया जाता क्योंकि आवेदन जहाँ भेजा गया वहीँ धुल फाँकता है.
सूचना प्राप्त करने के लिए जानकारी कॉल सेंटर तथा इंटरनेट के माध्यम से व्यवस्था की गयी, पर आपका पैसा भी कटेगा और सूचना भी नहीं मिलेगी.
सभी जिलाधिकारी, आरक्षी अधीक्षक तथा अन्य सारे वरीय पदाधिकारियों का आधिकारिक इमेल आईडी प्रकाशित किया गया, पर संवेदनहीनता का आलम यह है कि आप मेल भेजते-भेजते थक जायेंगे, पर कोई रेस्पोंस नहीं लेगा.
मनरेगा में नब्बे प्रतिशत काम फर्जी मस्टर-रोल के आधार पर कागजों पर किए गए, शिकायतों पर भी कोई सुननेवाला नहीं. ऐसे शिकायतों की एक लंबी फेहरिस्त मैंने स्वयं माननीय मुख्यमंत्री को प्रेषित की है पर वह जाँच के लिए मुख्य-सचिव के यहाँ अगस्त 2011 से ही पड़ा हुआ है.
आप राज्य के सभी अस्पतालों में घूमकर देख लें, वहाँ दवा आपूर्ति करनेवाले कंपनी का आपने कभी नाम नहीं सूना होगा, सारे घटिया दवा राज्य सरकार के अस्पतालों में आपूर्ति किए जा रहे हैं. सब भयंकर कमीशनखोरी और घोटाले का चक्कर है.
पूरे बिहार में जाली प्रमाणपत्रों के आधार पर पारा-शिक्षकों की नियुक्ति हुई है, आज तक सभी नियुक्त शिक्षकों के प्रमाणपत्रों का सत्यापन नहीं कराया जा सका है.
बीएमपी में भर्ती घोटाले की रिपोर्ट स्वयं बीएमपी के पुलिस महानिरीक्षक द्वारा सरकार को दी जाती है, पर आरोपितों पर कोई कार्रवाई न कर उक्त रिपोर्ट करनेवाले पदाधिकारी का ही स्थानांतरण कर दिया जाता है.
करोड़ों रूपए बिजली बिल नहीं जमा करनेवाले धनपशुओं का सरकार द्वारा बिजली-बिल माफ किया जाता है और छः हजार रूपए बकाया रखनेवाले गरीब को जेल में डाल दिया जाता है, क्या यह भ्रष्टाचार का जीता-जागता प्रमाण नहीं है ?
लालू जी के शासन में छूटभैये से लेकर बड़े नेता उत्पात मचाते थे, कमोवेश वही काम आज नौकरशाही कर रही है थोड़े पोलिस्ड तरीके से. आज नेताओं की कोई औकात नहीं रह गयी है.
पर मेरे फेसबुक मित्रगण इन बातों को पसंद नहीं करते, उन्हें तो बस बिहार को चमकाना है तो इसके लिए शोर्ट-कर्ट है बस जहाँ भी रहो शेखी बघारो. चूंकि उन्हें तो किसानी, खेती, मजदूरी करनी नहीं है, वातानुकूलित कमरे में बैठकर कंप्यूटर पर शाइनिंग बिहार का मैसेज लिखते रहेंगे. आप लिखिए पर वास्तविकताओं को भी जानिए बंधु, नहीं तो कहीं ना कहीं आप भी दबे-कुचले, वंचित, पीछे छूट गए लोगों के साथ अन्याय कर रहे हैं. उनकी अपनी तो क्षमता नहीं आवाज बुलंद करने की क्योंकि आपके जैसे बुद्धिजीवी उन्हें निगेटिव अप्रोच वाला कहकर सोशल साईट्स से भी खदेड़ देंगे.
मैं भी सुशासन चाहता हूँ पर बहरा, अंधा और गूंगा होकर नहीं, जहाँ कमियां रहेंगी मैं उसे देखूंगा-सुनूंगा और बोलूंगा भी. मेरा उद्देश्य इन बातों की ओर संबंधित संवेदनशील लोगों का ध्यान आकृष्ट कराना मात्र रहता है, लगता है कोई तो होगा जिससे उम्मीद की जा सकती है. यही वजह है कि मैं अपनी बातों को फेसबुक पर विभिन्न ग्रुपों में लिखते रहता हूँ.
मंगलवार, 10 जनवरी 2012
मांगी सूचना मिली मौत, मुश्किल में आरटीआइ कार्यकर्ता
सच को सामने लाना आसान काम नहीं है. यह आग का दरिया है, जिसमें डूब कर जाना होता है. ऐसा ही सूचना का अधिकार (आरटीआइ) कानून के तहत सच को सामने लाने वालों के बारे में भी है. इन दिनों बिहार में सूचना मांगना काफी महंगा पड़ रहा है. आरटीआइ कार्यकर्ताओं को उनकी कोशिशों के एवज में झूठे मामलों का सामना या फिर अपनी जान से ही हाथ धोना पड़ रहा है.
लखीसराय के रामविलास सिंह की 8 दिसंबर को हुई हत्या, इसी तरह के माहौल की ओर इशारा करती है. वे सच को सामने लाना चाहते थे. उन्होंने आरटीआइ को हथियार बनाया. कुछ लोगों को यह पसंद नहीं था. वे राकेश सिंह उर्फ बमबम सिंह को हत्या के मामलों में गिरफ्तार न किए जाने की सूचना पुलिस अधिकारियों से चाहते थे. उन्होंने पुलिस अधिकारी की संपति का ब्यौरा भी मांगा था.
रामविलास ने पंचायत चुनाव में मिल रही धमकियों से जान को खतरा होने की आशंका जताई थी और राज्य मानवाधिकार आयोग समेत दर्जनों इकाइयों से शिकायत भी की थी. लेकिन उनकी पूरी कवायद बेनतीजा रही. रामविलास के बेटे अभिषेक कुमार बताते हैं, ''पुलिस महकमा चाहता तो पिताजी की जान बच सकती थी. पुलिस ने न तो आरटीआइ आवेदनों पर अपराधी को गिरफ्तार किया और न ही सुरक्षा दिलवाई.'' अभिषेक की शिकायत पर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने लखीसराय के एसपी चौरसिया चंद्रशेखर आजाद से जवाब तलब किया है.
ऐसा ही कुछ बेगूसराय के बरौनी के शशिधर पांडे उर्फ खबरीलाल के साथ भी हुआ था. वे स्क्रैप माफिया और पुलिस के गठजोड़ को सबके सामने लाना चाहते थे. लेकिन 14 फरवरी, 2010 को उनकी हत्या कर दी गई थी. राजगीर के रामविलास कुछ खुशकिस्मत रहे. उनकी मुश्किलें उस समय शुरू 'ईं जब उन्होंने एसडीओ से नरेगा की जानकारी मांगी. उनके घर के दरवाजे में बिजली का करंट छोड़ दिया गया. बात नहीं बनी तो दो बार कुएं में जहरीली दवाइयां डालकर जान से मारने की कोशिश की गई. रामविलास बताते हैं, ''तत्कालीन एसडीओ के खिलाफ शिकायत करने पर राहत मिली.'' तत्कालीन राज्य सूचना आयुक्त शशांक कुमार सिंह ने एसडीओ कुलदीप नारायण को गैर-जिम्मेदार करार देते हुए जुर्माना और विभागीय कार्रवाई का आदेश दिया था.
आरटीआइ के जरिए सचाई सामने लाने वाले की सुरक्षा के बारे में पूछे जाने पर बिहार के पुलिस महानिदेशक अभयानंद कहते हैं, ''आरटीआइ कार्यकर्ताओं को सुरक्षा प्रदान करने के लिए संवैधानिक रूप से अलग से प्रावधान नहीं है. सुरक्षा की मांग करने वालों की अर्जियां जिला सुरक्षा समिति को सौंप दी जाती हैं, जहां से आवेदकों को खतरे की प्रकृति की गंभीरता के हिसाब से सुरक्षा मुहैया कराई जाती है.''
ऐसे मामलों की कोई कमी नहीं है, जहां आरटीआइ का सहारा लेने वालों को बेवजह ही परेशान किया गया है. खरीदीविगहा की मनोरमा देवी जब आंगनबाड़ी सेविका के पद पर नहीं चुनी गईं तो उन्होंने आरटीआइ को हथियार बनाया. करीब ढाई साल बाद ग्राम सभा आयोजित कर उन्हें सेविका के रूप में चुन लिया गया. इसकी कीमत मनोरमा और उनके पति को नवादा जेल में 14 दिन तक सजा काटकर चुकानी पड़ी. आरटीआइ के जरिए आई सचाई से जिस सुष्मिता नाम की महिला को सेविका पद छोड़ना पड़ा था, उसने मनोरमा और उसके पति गणेश चौहान के खिलाफ नगर थाने में मारपीट का आरोप लगाकर एफआइआर दर्ज करा दी.
मजेदार यह कि मनोरमा इस नाम से किसी महिला के अस्तित्व से ही इनकार करती हैं. वे कहती हैं, ''असल में गांव की नीलम के पास मैट्रिक के दो सर्टिफिकेट हैं. एक सर्टिफिकेट के आधार पर नीलम खुद राशन की दुकान चला रही है जबकि सुष्मिता नाम के दूसरे सर्टिफिकेट से अपनी देवरानी कांति को सेविका का पद दिला रखा था.'' उन्होंने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग से सुष्मिता नाम की महिला का पता लगाने के लिए आवेदन किया है.
अब सारण के मकव्र पंचायत के वीरेंद्र कुमार साह को ही लें. उन्होंने मुखिया से शिक्षक नियोजन से जुड़ी जानकारी मांगी थी. दोनों पैर से विकलांग वीरेंद्र को सूचनाएं तो नहीं मिलीं, उल्टा इसी दौरान चुनावी रंजिश में हुई मुखिया की हत्या का उसे अभियुक्त बना दिया गया. संयोग अच्छा था कि वीरेंद्र के साथ न्याय हुआ, वह आरोप मुक्त हुआ. सूचना न देने के और भी कई तरीके सामने आ रहे हैं.
भोजपुर के कवि तिवारी ने पंचायत समिति से योजनाओं की जानकारी मांगी तो उन्हें उसी कागजात को छीनने का आरोपी बना दिया गया, जिसकी सूचना मांगी गई थी. नागरिक अधिकार मंच के अध्यक्ष शिवप्रकाश राय बताते हैं, ''आरटीआइ देश के करोड़ों लोगों का सशक्त हथियार है, जो भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने में अहम भूमिका निभा रहा है. लेकिन आवेदकों पर चौतरफा हमले से स्थिति नाजुक हो गई है.''
बिहार राज्य सूचना आयोग के मुख्य सूचना आयुक्त अशोक कुमार चौधरी कहते हैं, ''सूचना उपलब्ध कराने में बिहार देश में अव्वल है. हर माह करीब 1,500 आवेदन आते हैं. करीब 60,000 से अधिक आवेदनों में से मुश्किल से 4,000 लंबित हैं.'' वे बताते हैं कि ज्यादातर सचिवालय स्तर से सूचनाएं उपलब्ध करा दी जाती हैं. चाहे जो हो आरटीआइ को कुंद करने वालों का दबदबा कायम है. इस माहौल में आवेदकों का साजिशों से बचना चुनौती बनता जा रहा है.
लखीसराय के रामविलास सिंह की 8 दिसंबर को हुई हत्या, इसी तरह के माहौल की ओर इशारा करती है. वे सच को सामने लाना चाहते थे. उन्होंने आरटीआइ को हथियार बनाया. कुछ लोगों को यह पसंद नहीं था. वे राकेश सिंह उर्फ बमबम सिंह को हत्या के मामलों में गिरफ्तार न किए जाने की सूचना पुलिस अधिकारियों से चाहते थे. उन्होंने पुलिस अधिकारी की संपति का ब्यौरा भी मांगा था.
रामविलास ने पंचायत चुनाव में मिल रही धमकियों से जान को खतरा होने की आशंका जताई थी और राज्य मानवाधिकार आयोग समेत दर्जनों इकाइयों से शिकायत भी की थी. लेकिन उनकी पूरी कवायद बेनतीजा रही. रामविलास के बेटे अभिषेक कुमार बताते हैं, ''पुलिस महकमा चाहता तो पिताजी की जान बच सकती थी. पुलिस ने न तो आरटीआइ आवेदनों पर अपराधी को गिरफ्तार किया और न ही सुरक्षा दिलवाई.'' अभिषेक की शिकायत पर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने लखीसराय के एसपी चौरसिया चंद्रशेखर आजाद से जवाब तलब किया है.
ऐसा ही कुछ बेगूसराय के बरौनी के शशिधर पांडे उर्फ खबरीलाल के साथ भी हुआ था. वे स्क्रैप माफिया और पुलिस के गठजोड़ को सबके सामने लाना चाहते थे. लेकिन 14 फरवरी, 2010 को उनकी हत्या कर दी गई थी. राजगीर के रामविलास कुछ खुशकिस्मत रहे. उनकी मुश्किलें उस समय शुरू 'ईं जब उन्होंने एसडीओ से नरेगा की जानकारी मांगी. उनके घर के दरवाजे में बिजली का करंट छोड़ दिया गया. बात नहीं बनी तो दो बार कुएं में जहरीली दवाइयां डालकर जान से मारने की कोशिश की गई. रामविलास बताते हैं, ''तत्कालीन एसडीओ के खिलाफ शिकायत करने पर राहत मिली.'' तत्कालीन राज्य सूचना आयुक्त शशांक कुमार सिंह ने एसडीओ कुलदीप नारायण को गैर-जिम्मेदार करार देते हुए जुर्माना और विभागीय कार्रवाई का आदेश दिया था.
आरटीआइ के जरिए सचाई सामने लाने वाले की सुरक्षा के बारे में पूछे जाने पर बिहार के पुलिस महानिदेशक अभयानंद कहते हैं, ''आरटीआइ कार्यकर्ताओं को सुरक्षा प्रदान करने के लिए संवैधानिक रूप से अलग से प्रावधान नहीं है. सुरक्षा की मांग करने वालों की अर्जियां जिला सुरक्षा समिति को सौंप दी जाती हैं, जहां से आवेदकों को खतरे की प्रकृति की गंभीरता के हिसाब से सुरक्षा मुहैया कराई जाती है.''
ऐसे मामलों की कोई कमी नहीं है, जहां आरटीआइ का सहारा लेने वालों को बेवजह ही परेशान किया गया है. खरीदीविगहा की मनोरमा देवी जब आंगनबाड़ी सेविका के पद पर नहीं चुनी गईं तो उन्होंने आरटीआइ को हथियार बनाया. करीब ढाई साल बाद ग्राम सभा आयोजित कर उन्हें सेविका के रूप में चुन लिया गया. इसकी कीमत मनोरमा और उनके पति को नवादा जेल में 14 दिन तक सजा काटकर चुकानी पड़ी. आरटीआइ के जरिए आई सचाई से जिस सुष्मिता नाम की महिला को सेविका पद छोड़ना पड़ा था, उसने मनोरमा और उसके पति गणेश चौहान के खिलाफ नगर थाने में मारपीट का आरोप लगाकर एफआइआर दर्ज करा दी.
मजेदार यह कि मनोरमा इस नाम से किसी महिला के अस्तित्व से ही इनकार करती हैं. वे कहती हैं, ''असल में गांव की नीलम के पास मैट्रिक के दो सर्टिफिकेट हैं. एक सर्टिफिकेट के आधार पर नीलम खुद राशन की दुकान चला रही है जबकि सुष्मिता नाम के दूसरे सर्टिफिकेट से अपनी देवरानी कांति को सेविका का पद दिला रखा था.'' उन्होंने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग से सुष्मिता नाम की महिला का पता लगाने के लिए आवेदन किया है.
अब सारण के मकव्र पंचायत के वीरेंद्र कुमार साह को ही लें. उन्होंने मुखिया से शिक्षक नियोजन से जुड़ी जानकारी मांगी थी. दोनों पैर से विकलांग वीरेंद्र को सूचनाएं तो नहीं मिलीं, उल्टा इसी दौरान चुनावी रंजिश में हुई मुखिया की हत्या का उसे अभियुक्त बना दिया गया. संयोग अच्छा था कि वीरेंद्र के साथ न्याय हुआ, वह आरोप मुक्त हुआ. सूचना न देने के और भी कई तरीके सामने आ रहे हैं.
भोजपुर के कवि तिवारी ने पंचायत समिति से योजनाओं की जानकारी मांगी तो उन्हें उसी कागजात को छीनने का आरोपी बना दिया गया, जिसकी सूचना मांगी गई थी. नागरिक अधिकार मंच के अध्यक्ष शिवप्रकाश राय बताते हैं, ''आरटीआइ देश के करोड़ों लोगों का सशक्त हथियार है, जो भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने में अहम भूमिका निभा रहा है. लेकिन आवेदकों पर चौतरफा हमले से स्थिति नाजुक हो गई है.''
बिहार राज्य सूचना आयोग के मुख्य सूचना आयुक्त अशोक कुमार चौधरी कहते हैं, ''सूचना उपलब्ध कराने में बिहार देश में अव्वल है. हर माह करीब 1,500 आवेदन आते हैं. करीब 60,000 से अधिक आवेदनों में से मुश्किल से 4,000 लंबित हैं.'' वे बताते हैं कि ज्यादातर सचिवालय स्तर से सूचनाएं उपलब्ध करा दी जाती हैं. चाहे जो हो आरटीआइ को कुंद करने वालों का दबदबा कायम है. इस माहौल में आवेदकों का साजिशों से बचना चुनौती बनता जा रहा है.
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